उम्र का सफ़र, दोस्ती और एक शुभकामना

लेखक - अनिल चावला

उम्र और दोस्तों का कुछ अजीब रिश्ता होता है। बचपन और किशोरावस्था में दोस्त खूब मिलते हैं। कच्ची उम्र में दोस्ती गहरी तो होती है पर उसके सम्बन्ध में गहराई या गंभीरता से सोचने की कोई जरूरत नहीं समझी जाती। सोचा तो नहीं जाता पर लड़कपन में दोस्त जीवन का एक अहम हिस्सा होते हैं और उनके बिना किसी भी गतिविधि की कल्पना भी नहीं की जाती।

धीरे धीरे कच्ची उम्र को पीछे छोड़ आदमी (या औरत) एक जिम्मेदार जवान पुरुष (या स्त्री) बन जाता है। यह जवानी का दौर होता है जिसमें मस्ती के साथ साथ बढ़ती जिम्मेदारियों और चुनौतियों का सामना होता है। इस दौर में जब आदमी जिंदगी की कश्मकश से जूझ रहा होता है तो अपने मित्रों में कभी उसको सहारे दिखाई देते हैं तो कभी प्रतियोगी और कभी प्रतिद्वंदी दिखाई देते हैं। अपनी उपलब्धियों का बखान, मित्र की उपलब्धियों से जलन, हर मिलन के बाद कुछ कमतरी का एहसास, कुछ अपने जीवन की तल्खियों पर गुस्सा - जवानी में मित्रों के बीच यह सब आम बात होती है। वही दोस्त जो किशोरावस्था में चटखारे लेकर वर्जित विषयों पर बातें किया करते थे, जवानी में शादी के बाद शालीनता की चादर ओढ़ लेते हैं और फिर बातचीत के विषय भी कम पड़ने लगते हैं। अब दोस्त उस गर्मजोशी से नहीं मिलते, कुछ दूरियाँ सी महसूस होने लगती हैं। पत्नी (या पति) की मादकता, बच्चों की किलकारियाँ, परिवार की जिम्मेदारियाँ, ऑफिस में बढ़ते टेंशन, पत्नी (या पति) के रोज नए गिले शिकवे शिकायतें, हर महीने ई एम आई देने का दबाव - जिंदगी के चक्करों में उलझता आदमी बस उलझता ही जाता है और भूल जाता है कि उसके कुछ दोस्त भी हुआ करते थे जिनके साथ समय बिताने में उसे आनंद आता था। कई वर्षों तक मिलते थे तो मित्र बड़े जोश-ओ-खरोश से मिलते थे और दूरियों का केवल एक हल्का सा एहसास भर होता था। फिर ना जाने कब दूरियाँ ही दूरियाँ रह गयी और दोस्ती केवल एक याद, एक डूबता हुआ एहसास भर रह गयी।

समय का चक्र निरंतर घूमता रहता है। जवानी कब प्रस्थान कर जाती है और बुढ़ापा बिना दस्तक दिए तन मन को घेर लेता है पता भी नहीं चलता। कुछ दिन तो इंसान नयी सच्चाई को झुठलाने की कोशिश करता है। बालों में चमकती चांदी को रंग दिया जाता है। पर बात केवल बालों तक तो सीमित नहीं होती। बच्चे बड़े हो कर अपनी जिंदगी की राह पर चल चुके। घर में ना वो किलकारियां हैं ना वो जिम्मेदारियाँ। दाम्पत्य जीवन की मादकता अब इतिहास बन कर गुम हो गयी है। अपना ही शरीर अब अपने होने का एहसास तरह तरह के दर्दों से दिलाने लगता है। कभी घुटने दुखते हैं, तो कभी कमर और कभी गर्दन ही अकड़ जाती है। और इन सब के साथ आता है एक गहरे अकेलेपन का एहसास। अब दोस्त बनाना बचपन और किशोर वय की तरह आसान नहीं रहा। पिछले तीन चार पांच दशकों से खुद को लबादों में ढकते रहे। अब अपना परिचय उन लबादों से ही होता है - साहब चीफ इंजीनियर हैं, वाईस प्रेजिडेंट हैं, वगैरा वगैरा। जब भी किसी से मिलते हैं तो ना हाथ मिला पाते हैं ना गले मिल पाते हैं - दिल मिलना तो दूर की बात है - बस ओहदे, धन-दौलत, उनसे जुड़ा अहम और इसी प्रकार के अनेकों लबादे आपस में टकरा लेते हैं। हाँ टकराने की बात चली तो यह जिक्र करना मुनासिब होगा कि कुछ लोग जाम टकराते हैं, एक दूजे को तौलते हैं और बस यूँ ही हर शाम तमाम करते हैं - सभ्य भाषा में इसे क्लब जाना या सोशल होना कहा जाता है। पर अकेलापन जाता नहीं है बल्कि रात के बढ़ते अँधेरे की मानिंद दिल-ओ-दिमाग पर गहराता चला जाता है।

जीवन में बढ़ता अन्धेरा केवल अकेलेपन के कारण नहीं आया होता। यह समझ आने लगता है कि जीवन की यात्रा का संध्याकाल आ गया है। अब ना तो भविष्य के बारे में कोई सपने हैं और ना ही योजनाएँ। शायद यह भी नहीं मालूम कि भविष्य कुछ है भी कि नहीं - बस एक अनंत धुंध या अन्धकार है जिसमें खो जाना है। यह बहुत भयावह है। अपनी मृत्यु के बारे में बात करना सरल नहीं है। अफ़सोस कि इसे नकारा नहीं जा सकता। बार बार इससे मुँह मोड़ने का प्रयास तो करते हैं परन्तु घूम फिर कर बात वहीँ आ जाती है। अब यदि पत्नी कहती है कि आपको अपनी वसीयत बना लेनी चाहिए तो वो गलत तो नहीं है। पर उसे कैसे समझाया जाए कि जीवन भर मर मर कर जो कुछ जोड़ा उसे छोड़ कर चले जाने का विचार कितना पीड़ादायक है। हाँ, इस पीड़ा को तो अकेले ही भोगना होगा।

आगे देखने में जब डर लगने लगता है और वर्तमान खोखला हो जाता है तो पीछे मुड़ कर देखने की इच्छा होना स्वाभाविक ही है। अब याद आती है उन पुराने दोस्तों की जिन्हें जिंदगी की कशमकश में भुला दिया था, जिन्हें कभी उनकी नाकामियों के लिए नीचा दिखाया था, जिनकी चमकदार सफलता से ईर्ष्या कर के मुँह बिचकाया था। अपने इतिहास के पन्नों से झाँकते ये पुराने दोस्त अचानक प्यारे लगने लगते हैं। इनको याद करके कहीं उस काल की यादें ताज़ा हो जाती हैं जब शरारतें किया करते थे, जब हँसी मज़ाक किसी पहाड़ी नदी की तरह उन्मुक्त होता था। उस काल की चिंताएँ, कुंठाएँ, समस्याएँ, परेशानियाँ तो सब कहीं यादों के गलियारे से गुम हो जाती हैं। बस, उन गुजरे सालों की मिठास याद आती है।

यादों में बसी उस मिठास को ढूँढ़ते हुए अब ढूंढा जाता है पुराने दोस्तों को जिनके साथ बचपन और किशोरावस्था के वर्ष गुजारे थे। मिलते हैं तो बहुत अच्छा लगता है। ऐसा लगता है जैसे वक्त का पहिया वापिस घूम गया है। कुछ क्षणों के लिए ही सही, पुराने दोस्तों से मिल कर आनंद आ जाता है। आजकल इसी कारण विभिन्न स्कूलों कॉलेजों के रीयूनियन का फैशन सा चला हुआ है। इसी समय दोस्तों के बच्चों की शादियों में जाने का सिलसिला शुरू किया जाता है। बिछड़ने के बरसों बाद मिलने में एक असीम आनंद मिलता है। पर यह आनंद तात्कालिक होता है और कुछ घंटों में ही लगता है कि जैसे अब बातें ख़त्म सी होने लगी हैं। मन है कि मित्र को पकड़े रखना चाहता है। उससे यह कहना चाहता है कि बातों के ख़त्म होने की चिंता मत करो, बस साथ बनाये रखो।

पर सच झुठलाया नहीं जा सकता। वक्त वापिस नहीं आता। दशकों में जो दूरियाँ रिश्तों में आ जाती हैं वो कुछ पलों में तो क्या सालों में भी नहीं मिटायी जा सकती। एक वो समय था कि अनगिनत दोस्त थे जितने चाहे बना सकते थे और आज यह दौर है कि मुट्ठी से फिसलती रेत की तरह जैसे उम्र निकलती जा रही है दोस्त भी दूर होते जा रहे हैं। बार बार पकड़ने की कोशिश करते हैं पर हर बार खाली हाथों से कुछ और फिसल जाने का एहसास भर आता है।

महत्वाकांक्षाओं, विकास और प्रगति के घोड़ों पर सवारी के लिए मित्रों ही नहीं समस्त रिश्ते-नातों को तिलांजलि दी। किसी ने गांव छोड़ा तो किसी ने घर। उपलब्धियों के सपनों पर अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। उपलब्धियाँ तो मिली पर बहुत कुछ छूट गया। आज गले में लटके तमगे और ओहदे तो हैं पर साथ ही उन लबादों ने घेर रखा है जिनको उतार पाना संभव ही नहीं लगता। कभी कभी तो लगता है कि इन लबादों तमगों और ओहदों के पीछे मैं हूँ भी या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझे पता ही नहीं लगा हो और मैं इन आडंबरों के नीचे दब कर मर गया हूँ। फिर जब मेरे पुराने मित्र मिलते हैं तो लगता है कि नहीं मैं अभी मरा नहीं हूँ, वो जो बच्चा खिलखिला कर हँसता था अभी ज़िंदा है, वो जिसकी आँखों में शैतानी की चमक थी वो अभी भी शैतानी करने को आतुर डरा सहमा छिपा बैठा है।

वक्त की रफ़्तार को कौन रोक पाया है। दीर्घायु होने के आशीर्वाद के पीछे छिपा एक अभिशाप होता है - अपने प्रियजनों, मित्रों को जाते देखने का। जो जितना अधिक जीता है वह इस घनघोर दुःख को उतना अधिक भोगता है। हर एक दोस्त के जाने की खबर व्यक्ति को कुछ और अकेला कर देती है। कुछ समय बाद आँसू भी सूख जाते हैं। रोने के लिए भी तो एक ख़ास किस्म का कंधा चाहिए होता है, जिस पर सिर रखते ही आँखों से अविरल गंगा बहने लगती है। जिन बच्चों को गोद में खिलाया था उनके कन्धों पर सिर रख कर रोया नहीं जा सकता। उन बेचारे लाड़लों के कंधे पर यह बोझ डालना संभव नहीं हो पाता। उनको सँभालने की जिम्मेदारी का एहसास उनके पास आते ही अपने आँसूंओं को पोंछने को मजबूर कर देता है। हर दोस्त के जाने की खबर उन सब की याद दिलाती है जिनके साथ मिल कर बीते सालों में रोये थे। कभी सोचा ना था कि एक दिन वो भी आएगा कि रोने को भी तरस जाएंगे।

जब तक जीवन में ऐसे लोग होते हैं जिनके कन्धों पर सिर रख कर हम रो सकते हैं हम उनकी कद्र नहीं करते। फिर जब जीवन की संध्या काल में अकेलेपन का एहसास लगातार गहराता जाता है तो समझ आता है कि रोने का मज़ा भी उनके साथ ही आता है जिनके साथ कभी मिल कर हँसे थे।

हाँ, याद आया - मैंने इस लेख के शीर्षक में आपको एक शुभकामना देने का वादा किया था। बस इतनी सी शुभकामना है कि आप सदा दोस्तों का साथ पाते रहें। उनके साथ मिल कर हँसते रोते रहें। ना कभी अकेले हंसें, ना कभी अकेले रोयें। हो सके तो अपने जीवनसाथी को अपना मित्र बना लें। आपका जीवनसाथी सदा मित्र बन कर आपका साथ निभाता रहे। पर आप केवल एक मित्र के सहारे जीवन ना गुज़ारें। आप के खूब मित्र हों। जिस प्रकार भोजन की थाली में भिन्न भिन्न प्रकार के व्यंजन हों और साथ में चटनी अचार पापड़ इत्यादि हों तो भरपूर आनंद आता है, वैसे ही आपके जीवन की थाली आपके जीवनसाथी के साथ ही हर प्रकार के मित्रों से सदा सजी रहे।

और अंत में एक बात कहना अत्यंत आवश्यक है। यदि आप के जीवन की थाली भरी पूरी सजी हुई है तो उसका आनंद उठायें, उसकी कद्र करें। बहुत से लोग सामने सजी थाली को नजरअंदाज कर किसी झूठे सपने के पीछे भागने में जीवन व्यर्थ कर देते हैं, फिर जब तक होश आता है तो बहुत देर हो चुकी होती है। इस बात को समझिये कि धन, पद, सम्मान आदि से कहीं अधिक ख़ास वो रिश्ते होते हैं जो दिल से जोड़े जाते हैं। मेरी शुभकामना तभी सार्थक होगी जब आप उसे सार्थक करना चाहेंगे। यदि आप मित्रों रिश्तों नातों को केवल एक निरर्थक बोझ समझेंगे तो वो दिन दूर नहीं जब आप रोने को भी मोहताज हो जाएंगे। मेरी प्रभु से प्रार्थना है कि ऐसा कभी ना हो और आप सदा अपने मित्रों प्रियजनों से घिरे हुए जीवन के सुख दुःख को भोगते रहें।

अनिल चावला

२२ फरवरी २०१९

ANIL CHAWLA is an engineer (B.Tech. (Mech. Engg.), IIT Bombay) and a lawyer by qualification but a philosopher by vocation and an advocate, insolvency professional and strategic consultant by profession.
Please visit www.indialegalhelp.com to learn about his work as lawyer.
Please visit www.hindustanstudies.com to know about his strategic research.
Please visit www.samarthbharat.com to read his articles, mini-books, etc.
Please write to the author about the above article

Anil Chawla

Registered Office: MF-104, Ajay Tower, E5/1 (Commercial), Arera Colony, BHOPAL - 462 016, Madhya Pradesh, INDIA