गण्, गणः, गणतंत्र, लोकतंत्र और भीड़तंत्र

लेखक - अनिल चावला

संविधान के द्वारा भारत के नागरिकों ने भारत में लोकतान्त्रिक गणतंत्र की स्थापना की। लेकिन संविधान में न तो लोकतंत्र की कोई परिभाषा है और न ही गणतंत्र की। साधारणतः लोकतंत्र और गणतंत्र को पर्यायवाची मान लिया जाता है। गण को लोक समझ लिया जाता है।

संस्कृत में गण् और गणः दो भिन्न भिन्न शब्द हैं। गण् का अर्थ होता है गिनती करना, ध्यान करना, विचार करना इत्यादि। गण् से ही गणित बना और गणेश भी बना। गणः शब्द की उत्पत्ति भी गण् से ही हुई है। गणः शब्द का अर्थ है रेवड़, झुंड, दल, समूह इत्यादि।

गणतंत्र का संधि विच्छेद गण् + तंत्र है न कि गणः + तंत्र। अर्थात गणतंत्र वह शासन पद्धति है जिसमें सोचने, विचारने, गणना करने वालों के अनुसार शासन चलाया जाता है। चुनाव के माध्यम से सरकार चुनना लोकतंत्र है, गणतंत्र नहीं।

मानव इतहास साक्षी है कि लोकतंत्र सौ-दो सौ साल से अधिक नहीं चल पाता और विनाश के पथ पर अग्रसर होता है। लोकतंत्र उन्हीं देशों में सफल हो पाता है जहाँ देश के बाहर से संसाधन आ रहे हों। उपनिवेशवाद और लोकतंत्र का गहरा रिश्ता है। बाहर से आने वाले धन के बलबूते पर नेता हर चुनाव में नये नये लुभावने वायदे कर पाता है। यदि कोई धन का बाहरी स्रोत न हो तो नेता वायदे तो करते हैं पर उनकी पूर्ति के लिए आतंरिक संसाधनों से धन जुटाने में या तो अलोकप्रिय हो जाते हैं या देश को खोखला कर देते हैं। लुभावने वायदों की अंतहीन प्रतिस्पर्धा लोकतंत्र की विशेषता भी है और कमजोरी भी।

लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है जब उस पर गणतंत्र का अंकुश हो। लोकतंत्र भावनाओं का उन्मादपूर्ण खेल है। इस पर जब विद्वतजनों, गुरुजनों की लगाम रहे तो राष्ट्र प्रगति करता हैं। दुःख की बात यह हैं कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लोकत्रांतिक गणतंत्र की उद्घोषणा के बावजूद भारत में गणतंत्र का लोकतंत्र पर अंकुश लगभग शून्य है। न्यायपालिका को बुद्धिमान विद्वान व्यक्तियों की संस्था माना जा सकता है। न्यायपालिका और प्रेस ने हमारे देश के नेताओं की निरंकुशता पर नियंत्रण करने की कुछ कोशिश अवश्य की है। परन्तु राजनैतिक दल और उनके नेताओं का जैसे जैसे बौद्धिक दिवालियापन बड़ा है, उनका अहंकार और येनकेनप्रकारेण अपनी मर्जी को लादने की प्रवृत्ति भी बढ़ती गयी है। आज देश के सामने सबसे बड़ा खतरा राजनेताओं के लुभावने वायदों और मूर्खतापूर्ण निर्णयों से है।

गणः को साधने के प्रयास में लोकनेता या राजनेता गण् अर्थात विचार, बुद्धि एवं समझदारी को निरंतर रौंद रहे हैं। मनभावन नारों और तर्कहीन जुमलेबाजी को लोकतंत्र का आवश्यक अंग मान लिया गया है। गण् से दूर होता बुद्धि का तिरस्कार करने वाला लोकतंत्र धीरे धीरे भीड़तंत्र में परिवर्तित हो रहा है। आज आवश्यकता है कि देश के चिंतनशील नागरिक इस समस्या को समझें और राजनैतिक परिदृश्य पर गण् अर्थात चिंतन, मनन को पुनः स्थापित करने के लिए प्रयास करें।

अनिल चावला

३१ दिसंबर २०१८

ANIL CHAWLA is an engineer (B.Tech. (Mech. Engg.), IIT Bombay) and a lawyer by qualification but a philosopher by vocation and an advocate, insolvency professional and strategic consultant by profession.
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Anil Chawla

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